लखनऊ।हिंदी भाषा में नुक़्ते का इस्तेमाल किया जाए या नहीं, यह विवाद बहुत पुराना है।दोनों मतों के पक्ष और विपक्ष में तरह-तरह के तर्क देखने को मिलते हैं।जब मौका हिंदी दिवस का हो तो इस तरह की बहस को आगे बढ़ाया जाना स्वाभाविक ही है।यहां इस बात पर भी चर्चा की गई है कि नुक़्ता के मामले मीडिया को कौन-सी राह पकड़नी चाहिए।
कहां से आया नुक़्ता
संस्कृत,हिंदी समेत अधिकतर भारतीय भाषाओं की ध्वनियों को देवनागरी लिपि में लिखा जाना कोई कठिन काम नहीं है। कहीं-कहीं अपवाद के रूप में कुछ विशेष चिह्नों की ज़रूरत होती है,लेकिन उन चिह्नों में नुक़्ता शामिल नहीं है।इसलिए इन भारतीय भाषाओं के मूल शब्द लिखने में नुक़्ता लगाने का सवाल ही नहीं उठता।दरअसल कुछ विदेशी भाषाओं की ध्वनियों को ठीक-ठीक बताने के लिए नुक़्ता की जरूरत पड़ती है।इस नुक़्ता को हिंदी में अधोबिंदु नाम दिया गया है।
हिंदी में जिन विदेशी भाषाओं की ध्वनियां शामिल हुई हैं, उनमें अरबी-फ़ारसी और अंग्रेज़ी मुख्य हैं।मोटे तौर पर अरबी-फ़ारसी की पांच ध्वनियों- क,ख,ग़,ज और फ के सही उच्चारण के लिए इनमें नुक़्ते का इस्तेमाल होता है।इनमें ज और फ ध्वनि का इस्तेमाल अंग्रेजी में भी होता है।सवाल उठता है कि हिंदी लिखते-बोलते समय अगर विदेशी भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल किया जाए तो ज़रूरत के मुताबिक उनमें नुक़्ता लगाया जाए या नहीं।
नुक़्ता लगाए जाने के पीछे तर्क
जो लोग नुक़्ता लगाए जाने के पक्ष में हैं,उनके कई तर्क हैं। पहली बात तो यह कि भाषा और उच्चारण की शुद्धता के लिए नुक़्ता लगाया जाना ज़रूरी है।उर्दू भाषा की ख़ूबसूरती बहुत-कुछ नुक़्ते की ध्वनियों पर टिकी है।इसलिए इस खू़बसूरती को बनाए और बचाए रखने के लिए नुक़्ते का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।सबसे बड़ी बात कि कहीं-कहीं नुक़्ता न लगाए जाने से अर्थ का अनर्थ हो सकता है।जैसे, जलील (श्रेष्ठ), ज़लील (तुच्छ). खाना (भोजन), ख़ाना (दराज, जगह). गौर (गोरा), ग़ौर (ध्यान), जिला (चमक-दमक), ज़िला (जनपद)ऐसे शब्दों की लिस्ट काफी लंबी है, जो भाषा के जानकार हैं, उन्हें सही जगह पर नुक़्ता न लगा होना बुरी तरह खटक सकता है।
नुक़्ता न लगाने के पीछे तर्क
भाषा के कई विद्वान हिंदी में नुक़्ता का प्रयोग साफ तौर पर न किए जाने के पक्षधर हैं।इनका तर्क है कि बाहर से आए जिन शब्दों में नुक़्ता लगाया जाता है, उन शब्दों को अब हिंदी ने पूरी तरह अपना लिया है।जब वैसे शब्द हिंदी में पूरी तरह घुल-मिल चुके हैं तो उन्हें हिंदी के बाकी शब्दों की तरह बिना नुक़्ता के ही लिखा जाना चाहिए।ज़्यादातर हिंदीभाषी उन शब्दों का उच्चारण भी वैसे ही करते हैं, जैसे उनमें नुक़्ता न लगा हो।नुक़्ता लगाए जाने के विरोधी अर्थ का अनर्थ होने की आशंका को भी नकारते हैं।इनका मानना है कि केवल किसी शब्द-विशेष में नुक़्ता दिखाकर या हटाकर अर्थ का अनर्थ होने की बात कैसे की जा सकती है,जब उन शब्दों का वाक्य में प्रयोग होगा तो पाठक और श्रोता प्रसंग के आधार पर खु़द ही सही मतलब निकाल लेंगे।यह एकदम सहज है।कहीं-कहीं, किसी विशेष परिस्थिति में ही परेशानी हो सकती है।एक तर्क यह भी है कि नुक़्ता के सही इस्तेमाल का ज्ञान बहुत कम हिंदीभाषियों को है। नुक़्ता लगाने की बाध्यता होने पर लोग अज्ञानवश बड़ी ग़लती कर सकते हैं।यह और भी ज़्यादा बुरी स्थिति होगी। इससे बचने के लिए कहीं भी नुक़्ता न लगाया जाए।माने एक दाम,सबको आराम।
मानक क्या है
इन दोनों विरोधी मतों के बीच आज की मानक स्थिति क्या है, यह भी देखा जाना चाहिए।केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने हिंदी वर्तनी का जो मानक जारी किया है, उसमें कहा गया है।उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द,जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतर हो चुका है, हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं।जैसे- कलम, किला, दाग पर जहां उनका शुद्ध रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्यक हो, वहां शुद्धता का ध्यान रखते हुए उनके हिंदी में प्रचलित रूपों में यथास्थान नुक़्ते लगाए जाएं।जैसे- खाना- ख़ाना, राज- राज, फन- फन।
आगे यह निर्देश दिया गया है कि विदेशी भाषाओं से आए शब्दों को जब देवनागरी लिपि में लिखा जाए तो वह यथासंभव उन बाहरी भाषाओं के मानक उच्चारण के अधिक से अधिक निकट होना चाहिए।साथ ही यह आशंका भी जताई गई है कि ज्ञान के अभाव में जहां-तहां नुक़्ता लगा देने से बड़ा अनर्थ हो सकता है।साफ है कि यहां व्यावहारिक रूप अपनाने की सलाह दी जा रही है।
मीडिया में नुक्ता-चीनी
मीडिया में नुक़्ता के इस्तेमाल की सीमा क्या हो यह देखना भी ज़रूरी है।जहां तक रेडियो और टीवी की बात है, इनमें शब्दों के उच्चारण पर सबका ध्यान होता है।यहां नुक़्ते का इस्तेमाल एकदम ही न किया जाए।ऐसी पॉलिसी नहीं बनाई जा सकती। यहां भाषा की शुद्धता और ख़ूबसूरती के लिए नुक़्ते का सामान्य ज्ञान भी होना चाहिए और उसका उचित इस्तेमाल भी होना चाहिए।यह अलग बात है कि जब ब्रेकिंग परोसने की हड़बड़ी हो, वहां लोग भी ख़बर पर ही कान देंगे,नुक़्ते पर नहीं।
जहां तक वेबसाइटों और अख़बारों की बात है इनकी अपनी शैली (स्टाइल) बहुत मायने रखती है।अगर किसी वेबसाइट या अख़बार ने अपना स्टाइल तय कर रखा है कि उन्हें नुक़्ते का इस्तेमाल करना है या नहीं तो इसमें शुद्धता या अशुद्धता का सवाल एकदम गौण पड़ जाता है।हालांकि ऐसे में हर पेज पर एक जैसी नीति दिखने की अपेक्षा की जाती है।ऐसा नहीं कि जब मन हुआ, नुक़्ता लगा दिया जाए, जब मन हुआ छोड़ दिया जाए। इसके एकाध अपवाद हो सकते हैं।अगर साहित्य के पेज पर उर्दू की कविता या कोई और रचना छापनी हो तो वहां ज़रूरत पड़ने पर नुक़्ता लगना ही चाहिए।वहां नुक़्ते से परहेज़ करना उन रचनाओं और रचनाकारों के साथ अन्याय ही कहा जाएगा।मौजूदा स्थिति यह है कि आज हिंदी के ज़्यादातर बड़े अख़बारों में नुक़्ता नहीं चलता।यह अपने-अपने स्टाइल की बात है। वेबसाइटों में स्टाइल-शीट का अभाव नजर आता है। इनमें काफ़ी हद तक लिखने वाले पर निर्भर होता है कि वह नुक़्ते का इस्तेमाल करता है या नहीं।कुल मिलाकर नुक़्ते के ज्ञान का सवाल बड़ा है,लेकिन यहां इससे भी बड़ा सवाल है कि अपना प्रोडक्ट दर्शकों-पाठकों के सामने जल्द से जल्द कैसे परोसा जाए।
Author: मोहम्मद इरफ़ान
Journalist